जुर्माने की रकम ने रोके भारतीय छात्रों के युक्रेन मे कदम

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रुडकी। हम सभी के मन में यह सवाल कौंध रहा है कि आखिर युद्ध शुरू होने से पहले छात्र अपने देश क्यों नहीं आए, जबकि अमेरिका सहित सभी देशों ने युद्ध के खतरे से आगाह कर दिया था। इन सभी सवालों का जवाब है, वहां की जटिल शिक्षा प्रणाली। एक दिन कक्षा में अनुपस्थिति पर प्रति छात्र 2400 रुपये (948 रिव्निया) वसूले जाते हैं। शत-प्रतिशत उपस्थिति नहीं होने पर परीक्षा से वंचित रखा जाता है। युद्ध शुरू होने तक वहां नियमित कक्षाएं चलती रहीं। छात्रों ने युद्ध को नजरअंदाज कर अपने करियर को ज्यादा तवज्जो दी। छात्रों को शिक्षा में लगाए लाखों रुपये डूबने का डर था। युद्ध से पहले हवाई यात्रा भी महंगी थी। इन सब वजहों से छात्र वहां पर फंस गए।

अभिभावक अपनी जमा-पूंजी से बच्चों को एमबीबीएस करने यूक्रेन भेजते हैं। वहां सबसे सस्ते में एमबीबीएस का कोर्स पूरा होता है। आने-जाने और रहने आदि तमाम खर्चों को जोड़कर करीब 50 लाख रुपये लगते हैं। वहां की शिक्षा प्रणाली अन्य देशों के मुकाबले जुदाहै।बताया गया कि एक दिन कक्षा में अनुपस्थित रहने पर 2400 रुपये वसूले जाते हैं। जो कक्षा छूट जाती है, उसे अतिरिक्त समय में पूरा कराया जाता है। कोरोना के समय में आनलाइन कक्षाएं चल रही थीं। कोरोना कम होने पर नियमित कक्षाएं शुरू हो गई। इसके बाद कक्षा में अनुपस्थित रहने का कोई बहाना नहीं चला। यदि कोई बीमार हैं तो मेडिकल रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद छूटी कक्षा को पूरा करना होता है। यदि बिना कारण के छात्र अनुपस्थित होता तो उसे परीक्षा से वंचित रखा जाता है। युद्ध के खतरे के बीच भी वहां पर कक्षाएं चलती रहीं। युद्ध शुरू होने पर ही कक्षाओं की छुट्टी की गई। युक्रेन से लौटे छात्रों का कहना है कि यदि वह युद्ध शुरू होने से पहले कक्षाएं छोड़ देते तो उन्हें परीक्षा से वंचित कर दिया जाता। इससे उनका करियर तो खराब होता ही, एमबीबीएस के लिए जो धन माता-पिता ने लगाया था, उसके भी बर्बाद होने का डर था। उनके माता-पिता को किसी तरह पैसे इकट्ठा कर उन्हें यूक्रेन पढ़ने के लिए भेजा था। यही वजह है कि वह युद्ध के खतरे के बीच भी वह कक्षा में उपस्थित रहे। वह अपने माता-पिता के सपनों पर पानी नहीं फेर सकते थे।

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